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Wednesday, June 1, 2011

अन्न के धक्का से अन्न पचता है !


यशोदा जैसी भोली भाली मेरी माँ बचपन में मुझे जबरन खा - लो ,खा - लो का रट लगाया करती थी .नहीं खाने पर ठुकाई भी कर देती थी , उनके इस जबरिया ममत्व के पीछे एक ही तर्क था कि अन्न के धक्के से ही अन्न पचता है उनका यही प्यार था कि आज हाहाकार हेल्थ लेकर सम्पन्नता का प्रतीक बन गया हूँ . भले ही भीतर कई बीमारिया खाद खोज रही हैं ..माँ की उस सीख को तब नहीं समझ सका था , दरअसल यह ज्ञान जीवन निर्माण में लागू करनी चाहिए थी ..यह अब महसूस हो रहा है ..निगोड़े कुवारे भले ही मेरी बातो पर नजर न डाले लेकिन जीवन के सेकंड हाफ में अगर सत्यार्थ की खोज करने का शौक चढ़ा तो मेरे इस वक्तव्य को गांठ बांध लेना चाहिए . दरअसल माँ की यह फिलोसफी बहुओ के लिए थी . अगर बीबी परेशां करे तो क्या करे ? दूसरी बीबी ले आओ , बीबी पर सौतन चढ़ा दो .. आप चैन से बादाम तोड़ेंगे और वे एक दूसरे का सर ..इस फार्मूले को विवाह के दो साल उपरांत विवाहित मर्द समझ सकते हैं ..कुंवारे और नव विवाहित तो इस ब्रह्म ज्ञान को मजाक समझेंगे लेकिन धीरे धीरे वे महसूस करेंगे कि कुंवारापन का लुत्फ़ या सन्यासी बनने का अनुभव ज्यादा सुखद है . और अगर झमेले में पड ही गए हैं तो वही फार्मूला ..अन्न के धक्का से अन्न पचता है ..परेशानी सिर्फ इस बात की है ( जिसे मै झेल रहा हूँ ) दूसरी मिलेगी कहाँ ? अरे सम्पादकीय वंपादाकीय तो बहाना है ..इसी बहाने 45 पार यह नाचीज सम्पादकीय का कालम मैट्रिमोनियल कोलम के रूप में उपयोग कर रहा है . इस अकेले को इतना फूटेज कहा मिलता ... वैसे ईडियट प्रबंधन से लिखवा चुका हूँ वेतन नहीं लूँगा ब्लैक मेलिंग करूंगा ...
आज अपनी कही कल आपकी भी कहूँगा।
जोहार
स्थानीय संपादक (योगेश किसलय)

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